Sunday, February 20, 2011
पीड़ा
जहाँ जाने का मन करता है
है एक गलत धारणा लोगो के मन में
उसे बदलने का मन करता है
है आज भी यहाँ के खेतो की मेंढे ऊँची - बड़ी
जिसे देख लोग समझते है की
ये लोग है जंगल के
अलग थलग से ,
किसी ने न पूछा नाक में तीन - तीन नथ पहने पड़ोसन से
कि वजह क्या है
वजह तो सिर्फ इतनी सी कि पानी को बचाकर चावल ज्यादा पैदा करना है,
आज न जाने क्यूँ यहाँ एक अपनापन सा लगता है ,
शायद बचपन के दिन याद आने लगते है,
छतीसगढ़ पहुच कर बचपन के दिन और ज्यादा याद आने लगते है,
ऊँचे नीचे टीलो पर परत दर परत ये खेतों की मेंढे,
मन में एक नया रोमांच भरती है,
इसकी वजह बचपन के ही वो दिन थे,
हर दरख़्त हर खेत देखने का मन करता है,
कई साल बाद आज भी ये दरख़्त वैसे ही है,
जैसे इन्हें छोड़ गया था,
बड़े निराले थे वो दिन जब ट्रेन में भाइयो से लड़कर,
खिड़की की सीट बैठकर बाहर के नज़ारे लेता था,
लेकिन जिंदगी की भीड़ में आज न जाने वो खुशी कहाँ छूट गई है,
ऐसे लगता है की सारी खुशियों के स्टेशन को जिंदगी की गाडी ने पीछे छोड़ दिया है,
जो अब सब कुछ बेगाना लगता है,
बस जिए जा रहे है,
अतीत के पन्ने आँखों के सामने से रुखसत होते है,
और ऐसा लगता है की मैं अभी भी एक मासूम बच्चा हूँ,
जिसकी मासूमियत वक़्त ने आज अपने पहलु में समेट ली है,
आज अपने अतीत से गुजरकर अच्छा लग रहा है,
मानो वक़्त थम सा गया है,
हर स्टेशन पर बैठा हर शक्श जाना पहचाना सा लगता है,
शायद ये सब मन में छुपे वे पहलु है जिनका एहसास मुझे भी आज ही हुआ है,
ये मन में छुपे वोह दर्द है जो लोगो के चेहरे में दिखने लगा है,
याद आते है नक्सली संघर्ष के वो दिन,
जब सारी मीडिया के साथ देश के हर शक्श ने इन्हें देशद्रोही कह दिया था,
शायद तब की पीड़ा अब निकल रही है,
जब इन मासूमो के बीच रह कर सारा बचपन याद आ गया,
मेरे बचपन के ३ साल ये मानने को आज भी तैयार नहीं होते है कि
कैसे इन लोगों ने इतने जघन्य अपराध कर दिए,
बहुत देर तक सोचने के बाद समझ आया कि इन सबका कारण
दिल्ली से इनकी दूरी ही है.
Friday, September 24, 2010
दे टुक मी एण्ड टोल्ड मी नथिंग- फीमेल जेनेटाइल म्यूटीलेशन इन इराकी कुर्दिश्तान
मानवता को शर्मशार कर देने वाली इस फीमेल जेनेटाइल म्यूटीलेशन (सुन्नाह) प्रथा की शिकार बहुत सी इराकी कुर्दिश लड़किया और महिलाए हैं। दे टुक मी एण्ड टोल्ड मी नथिंग- फीमेल जेनेटाइल म्यूटीलेशन इन इराकी कुर्दिश्तान नामक 73 पन्नो की रिपोर्ट उन लड़कियो और महिलाओ के अनुभवो पर आधारित है जो इसकी शिकार है और जो अब कुछ धर्मगुरू एवं स्वास्थ्य कर्मियो के साथ मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ मुहिम चला रही है। रिपोर्ट बताती है उस खौफ को जो लड़कियो और महिलाओ के जननांगो के काटे जाने के पहले और वो असर जो बरसो बाद तक इनकी शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ता रहता है। मात्र ये सुनकर कि इन बेगुनाहो को बिना बताए कुछ दाई स्वरूप औरते इनके जननांगो के बाहरी हिस्से को ब्लेड से काट देती हैं, पूरे शरीर में एक सनसनाहट हो जाती है। 17 साल की गोला कहती है कि मुझे याद है कि मेरी मां और मामी हम दो लड़कियो को लेकर कहीं गई। वहां पर चार और लड़किया थी। वे मुझे बाथरुम में लेकर गए और मेरे पैरो को फैलाकर कुछ काट दिया। वे सबको एक एक करके ले गए और एक ही ब्लेड से सबका सुन्नाह कर दिया। मैं डरी हुई थी और बहुत दर्द हो रहा था। जब भी मेरा मासिक रजोधर्म होता है मुझे उस हिस्से मे बहुत तकलीफ होती है।
फीमेल जेनेटाइल म्यूटीलेशन (एफजीएम) शब्द 70 के दशक में चर्चा में आया। वर्ष 1990 में अद्दाबी अबाबा में हुई‘‘इंटर अफ्रीकन कमेटी ऑन ट्रेडिशनल प्रेक्टिस अफेक्टिंग द हेल्थ ऑफ वूमेन एण्ड चिल्ड्रन’’ के कांफ्रेस में इस शब्द को अपना लिया। लेकिन इसका अस्तित्व के प्रमाण मिस्त्र की पुरातन सभ्यता में मिले हैं। हालांकि आज मिस्त्र में इसको ख़त्म करने के लिए कानून भी बनाया गया है। इस कुप्रथा के मूल में इसाई और इस्लाम धर्म की गलत व्याख्या है। मिस्त्र में इसाई समुदाय के धर्मगुरू का कहना है कि पवित्र बाइबल में इस प्रथा का अस्तित्व ही नही है। यूनिसेफ के कथनानुसार मिस्त्र की सबसे बड़ी धार्मिक संस्था ‘’अल-अजहर सुप्रीम काउंसिल ऑफ इस्लामिक रिसर्च’’ ने एक बयान जारी किया था कि शरियत में इस प्रथा का कोई आधार नही है।
बात अगर पूरे वैश्विक परिदृश्य की करे तो विश्व के अधिकांश देश इस प्रथा की चपेट में हैं। एम्नेस्टी इंटरनेश्नल के आंकड़ो को माने तो पूरे विश्व में 13 करोड़ महिलाए और लड़किया इससे पीड़ित हैं और हर साल 30 लाख लड़किया पर ये ज़ुल्म ढ़ाया जाता है। सबसे ज्यादा इस घ्रणित प्रथा को अफ्रीका के 28 अलग-अलग देशो में किया जाता है। पश्चिमी अफ्रीका के सेनेगल से पूर्वी तट तक और मिस्त्र से लेकर तंजानिया तक की महिलांए और लड़कियां इसकी शिकार हैं।
अफ्रीका के बारकीनो फासो में 71.6%, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में 43.4%, डिजीबुआती में 90–98%, मिस्त्र में 78-97%, इरिट्रिया में 90%, इथियोपिया में 69.7-94.5%, घाना में 9-15%, गुनिया में 98.6%, नाइजीरिया में 25.1%, सिनेगल में 5-20%, सुड़ान में 91%, तंजानिया में 17.6%, टोगो में 12%, युगांडा में 5%से कम एफजीएम से पीड़ित हैं। |
ये वे देश हैं जो इस कुप्रथा के शिकार है और ये सभी इस प्रथा के खिलाफ कानून बनाकर लड़ रहें हैं इसके साथ ही ऑस्ट्रेलिया, कनाडा. इटली, नीदरलैण्ड, न्यूजीलैण्ड, स्वीडन, युनाइटेड किंगडम और युनाइटेड स्टेट्स जैसे देशो ने अपने नागरिको के हित के लिए एफजीएम विरोधी कानून बना कर उसको सख्ती से लागू करवा रहें हैं। संयुक्त राष्ट्र ने तो 6 फरवरी को इंटरनेशनल डे ऑफ जीरो टॉलरेंस टु फीमेल जेनेटाइल म्यूटीलेशन घोषित कर दिया है। लेकिन एशियाई देशो में इराक के कुर्दिश्तान प्रान्त में एफजीएम से 72.7 फीसदी महिलाओ और लड़कियों के पीड़ित होने के बावजूद इराकी इस कुप्रथा को अपना नसीब मानकर बैठ गए है।
सन् 2008 में स्थानीय इराकी सरकार ने इस प्रथा को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए थे, पुलिस ने भी सुन्नाह करने वालो के ख़िलाफ सख़्त कार्रवाई की थी। कुर्दिश्तान नेशनल असेंबली के बहुसंख्यक सदस्यो ने भी सुन्नाह पर प्रतिबंध लगाने वाले विधेयक का समर्थन किया लेकिन इच्छाशक्ति में कमी के चलते यह बिल ठंडे बस्ते में चला गया। वर्ष 2009 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्थानीय एनजीओ के साथ मिलकर फिर से सुन्नाह के खिलाफ एक सुनियोजित मुहिम चलाई लेकिन इस बार भी नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात रहा, मंत्रालय ने अपने कदम खी़च लिए और मुहिम किसी मुकाम तक पहुंचने से पहले ही खत्म हो गई।
एचआरडब्ल्यू के रिसर्चर्स ने मई और जून 2009 में कुल 31 लड़कियो और महिलाओ (जो कि उत्तरी इराक के हलबजा कस्बे के चार में रहती हैं) का इंटरव्यू किया। नादिया खलीफी जो कि मध्य एशिया में महिला अधिकारो की लड़ाई लड़ रहीं हैं कहती हैं कि इराकी कुर्दिश्तान में महिलाओ और लड़कियो की अच्छी खासी तादाद इस विनाशकारी प्रथा की शिकार है। एच आर डब्ल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक स्थानीय सरकार इस ख़तरनाक और समाज को कमजोर करने वाली इस प्रथा को ख़त्म करने में ठोस कदम उठाने में नाकाम रही है। इसके अलावा रिपोर्ट कहती है कि एफ जी एच प्रथा महिलाओ और बच्चो के मौलिक अधिकारो का हनन करने के साथ ही साथ उनके जीवन को भी चुनौती दे रहा है। ऐसे में लाज़िमी है कि कुर्दिश्तान में इस घिनौनी प्रथा को रोकने के स्थानीय सरकार को एक सुनियोजित तरीके से कठोर कानून लागू करना चाहिए।
लेखक संदीप वर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व छात्र हैं। इस समय नियमित रुप से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।
Thursday, July 1, 2010
Mann ki BHADAS kuch bade Patrakaro k naam
Aap editor hai jara ye bataiy ki aapko jab naukri mili thi tab aapne bhi jugaad lagaya tha.
Agar jugaad nahi lagaya tha tab bhi jab pahli naukri maangne k liy kisi akhbar k daftar me sudama ki tarah khade the tab aapne apna experience kya bataya tha.
Aaj jab mein ek English print media jo ki hamare
Mera maan me kuch question uth rahe hai ki kya desh k number1 institute se padhai karne k baad bhi aise hi dhakke khane padenge agr pata hota to graduation k baad se hi chamchagiri kar k naukri ka jugaad kar liya hota. Lekin IIMC se padhe k baad mann me ek swabhimaan hai ki chatukarita karke to naukri nahi karni mujhe apne upar pura bhrosa hai ki mei apna kaam sabse acccha kark de sakta hun. Chahe wo quark pe page banana ho ya phir incite ya FCP pe package katna. Chahe story likhni ho ya script likhkar slug supar lagane ho. Mere college me itna mujhe sikha diya hai aur baki ka kaam
Rahi baat naukri na milne ki to mujhe afsos hai ki is NEWS PAPER ne ek aise P-4 technology k employee ko kho diya jo har vidha me kaam karne me nipun hai. Print k lagbhag sabhi software pe kaam aana photography me ek
Thursday, September 17, 2009
सेना और मानवाधिकार
सेना के लिये इस तरह की घटना कोई नई बात नही है। इससे पहले भी सेना ने अनेको ऐसे काम अन्जाम दिये है जिन पर जानवरो को भी शर्म आ जाए।
पहला काण्ड
13 जनवरी 1997 को सेना ने असम के नगाऊं जिले के राजबरी गांव में छापा मारा। छापे के दौरान ग्रामीण दशरथ सिंह को एक जवान ने गोली मार दी। गोली दशरथ सिंह के सिर को फाड़ते हुए निकल गई। आवाज़ सुनकर कमाण्डिंग ऑफीसर चिल्लाया- राजू तब जवान ने कहा कि गलती हो गई साब और मामला खत्म।
दूसरा काण्ड
25 जुलाई 1997 को 25वी पंजाब रेजिमेन्ट के जवानो ने आसाम के सोनित- पुर जिले के कुमुचुबारी गांव में दबिश डाली। सभी गांव वालो को एक जगह इकठ्ठा होने के आदेश दिये गये। इसी समय मौके का फायदा उठाते हुए दो जवान उमेश कोच के घर में घुस गये और उसकी पत्नी से जबरदस्ती करने लगे। उमेश की पत्नी किसी तरह जान बचाकर भागने में क़ामयाब हो गई। वासना के भूखे भारतीय सेना के दोनो जवानो ने उसकी 12 साल की मासूम बच्ची ममोनी से बारी-बारी बलात्कार किया और बाद में 10 रूपये का नोट उसपर फेंककर भाग गये।
तीसरा काण्ड
30 मई 1997 को सेना ने मानवाधिकार कर्मी छेनीराम को उठाया और 1 जून को उसकी बिना सिर की लाश को स्थानीय पुलिस को सौंप दिया और बताया कि 31 मई को हुई मुठभेड़ में वह मारा गया जबकि हक़ीकत में ऐसी कोई मुठभेड़ हुई ही नही।
ऊपर लिखी कुछ घटनाएं महज एक आईना है सेना की करतूत और उसका असली चेहरा दिखाने के लिए। हाल ही में जम्मू-कश्मीर सरकार ने बताया है कि 1990 से जुलाई 2009 तक राज्य से करीब 3500 युवा गायब है। अनाथों की संख्या लगभग 27000 पहुँच गई है जिसमें 20000 अनाथ ऐसे है जिनके मां-बाप सेना द्वारा की गई कार्यवाही में मारे गये है और प्रदेश में विधवाओ की संख्या 9000 है जिसमें लगभग 6500 के पतियों की मौत सेना द्वारा की गई कार्यवाही में हुई है। हालांकि सेना ने अनेक मामलो में कार्यवाही की है लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी घटनाएं होती ही क्यूँ हैं। ऐसी घटनाओं से सेना की विश्वसनीयता ख़तरे में पड़ गई है। सेना को अपनी विश्वसनीयता बचाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे।
संदीप वर्मा
रेडियो एवम् टेलीविज़न पत्रकारिता